1782 : मीर मुहम्मद तक़ी दिल्ली छोड़ कर नवाब आसफुददौला की दावत पर लखनऊ आ तो गया। मगर न उसको यह शहर रास आया, न अवध दरबार। दरबार छूटा, फिर सेहत ने भी साथ छोड़ दिया। बेटी, बेटा और उन के बाद बीवी ने भी उसको छोड़ ख़ुदा का दामन थाम लिया।
1810 : 21 सितंबर, जुमे के दिन आख़िरकार मीर ने भी इस दुनिया-ए फ़ानी को अलविदा कहा और शहर के बाहर एक क़ब्रिस्तान में हमेशा हमेशा के लिये सुकूनत इख्तियार कर ली। मगर लखनऊ में किसी को काहे का सुकून। जल्दी ही हथौड़ों के शोर ने उसकी रूह को हिला दिया। उसकी क़ब्र के ऊपर लोहे ही पटरियाँ बिछाईं जा रही थीं।
1867 : 23 अप्रैल; लखनऊ को कानपुर से जोड़ने वाली (47 मील) इस रेलवे लाइन को पब्लिक के लिये खोल दिया गया। उस वक़्त यह अवध रोहेलखण्ड रेलवे का हिस्सा थी, जो 1925 में ईस्ट इंडियन रेलवे में शामिल कर ली गई। 1867 तक यह जगह हर तरफ़ बाग़ों से घिरी हुई थी। अब भी यहाँ बना रेलवे स्टेशन चारबाग़ के नाम से ही जाना जाता है।
1914 : 21 मार्च को उस इमारत की नीव रखी गई और बारह साल लगे उसे पूरा होने में जिसको आज हम रेलवे स्टेशन की शक्ल में देखते हैं। दुनिया में कम ही रेलवे स्टेशन इतने ख़ूबसूरत होंगे, जैसा कि हमारा चारबाग़ है। आसमान से देखने पर इसकी मीनारें ऐसी दिखती हैं जैसे शतरंज की बिसात पर मोहरे बिखरे हों।
1926 से आज तक शायद ही कोई ऐसा हो जिसने इस इमारत को देखा हो और इसकी शान-ओ शौकत से मुतासिर न हुआ हो। मगर क्या कभी किसी ने ट्रेनों की आवा-जाई और दुनिया के शोर शराबों में दब चुकी इस इमारत की आवाज़ को सुनने की कोशिश की है, जिसकी आगोश में हिंदुस्तान का अज़ीम शायर सो रहा है –
सरहाने मीर के आहिस्ता बोलो | अभी टुक रोते-रोते सो गया है - मीर तक़ी मीर
1810 : 21 सितंबर, जुमे के दिन आख़िरकार मीर ने भी इस दुनिया-ए फ़ानी को अलविदा कहा और शहर के बाहर एक क़ब्रिस्तान में हमेशा हमेशा के लिये सुकूनत इख्तियार कर ली। मगर लखनऊ में किसी को काहे का सुकून। जल्दी ही हथौड़ों के शोर ने उसकी रूह को हिला दिया। उसकी क़ब्र के ऊपर लोहे ही पटरियाँ बिछाईं जा रही थीं।
1867 : 23 अप्रैल; लखनऊ को कानपुर से जोड़ने वाली (47 मील) इस रेलवे लाइन को पब्लिक के लिये खोल दिया गया। उस वक़्त यह अवध रोहेलखण्ड रेलवे का हिस्सा थी, जो 1925 में ईस्ट इंडियन रेलवे में शामिल कर ली गई। 1867 तक यह जगह हर तरफ़ बाग़ों से घिरी हुई थी। अब भी यहाँ बना रेलवे स्टेशन चारबाग़ के नाम से ही जाना जाता है।
1914 : 21 मार्च को उस इमारत की नीव रखी गई और बारह साल लगे उसे पूरा होने में जिसको आज हम रेलवे स्टेशन की शक्ल में देखते हैं। दुनिया में कम ही रेलवे स्टेशन इतने ख़ूबसूरत होंगे, जैसा कि हमारा चारबाग़ है। आसमान से देखने पर इसकी मीनारें ऐसी दिखती हैं जैसे शतरंज की बिसात पर मोहरे बिखरे हों।
1926 से आज तक शायद ही कोई ऐसा हो जिसने इस इमारत को देखा हो और इसकी शान-ओ शौकत से मुतासिर न हुआ हो। मगर क्या कभी किसी ने ट्रेनों की आवा-जाई और दुनिया के शोर शराबों में दब चुकी इस इमारत की आवाज़ को सुनने की कोशिश की है, जिसकी आगोश में हिंदुस्तान का अज़ीम शायर सो रहा है –
सरहाने मीर के आहिस्ता बोलो | अभी टुक रोते-रोते सो गया है - मीर तक़ी मीर
Charbagh Railway Station, Lucknow image taken on May 09, 2013 Nikon Coolpix L26 |
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References:
Charbagh Railway Station, Lucknow image taken on May 09, 2013 Nikon Coolpix L26 |
سرهانے میر کے آہستہ بولو
1782 : میر محمد تقی دہلی چھوڑ
کر نواب آصف الدولہ
کی دعوت پر لکھنؤ آ تو گیا. مگر نہ اس کو یہ شہر راس آیا، نہ اودھ دربار. دربار
چھوٹا، پھر صحت نے بھی ساتھ چھوڑ دیا. بیٹی، بیٹا اور ان کے بعد بیوی نے بھی اس کو
چھوڑ خدا کا دامن تھام لیا.
21 : 1810 ستمبر، جمعہ کے دن
بالآخر میر نے بھی اس دنیاء فاني کو الوداع کہا اور شہر کے باہر ایک قبرستان میں
ہمیشہ ہمیشہ کے لئے سكونت اختیار کر لی. مگر لکھنؤ میں کسی کو کاہے کا سکون. جلد ہی
ہتھوڑے کے شور نے اس کی روح کو ہلا دیا. اس کی قبر کے اوپر لوہے ہی پٹرياں بچھائی
جا رہی تھیں.
1867 : 23 اپریل؛
لکھنؤ کو کانپور سے جوڑنے کرنے والی (47 میل) اس ریلوے لائن کو پبلک کے لیے کھول دیا
گیا. اس وقت یہ اودھ روهیلكھنڈ ریلوے کا حصہ تھی جو 1925 میں ایسٹ انڈین ریلوے میں
شامل کر لی گئی. 1867 تک یہ جگہ ہر طرف باغوں سے گھری ہوئی تھی. اب بھی یہاں بنا ریلوے
اسٹیشن چارباغ کے نام سے ہی جانا جاتا ہے.
1914 : 21
مارچ کو اس عمارت کی بنیاد رکھی گئی اور بارہ سال لگے اسے
مکمل ہونے میں جس کو آج ہم ریلوے اسٹیشن کی شکل میں دیکھتے ہیں. دنیا میں کم ہی ریلوے
اسٹیشن اتنے خوبصورت ہوں گے، جیسا کہ ہمارا چارباغ ہے. آسمان سے دیکھنے پر اس کی
ميناریں ایسی نظر آتی ہیں جیسے شطرنج کی بساط پر مہرے بکھرے ہوں.
1926 سے آج تک
شاید ہی کوئی ایسا ہو جس نے اس عمارت کو دیکھا ہو اور اس کی شان و شوکت سے متاثر نہ ہوا ہو. مگر کیا کبھی کسی نے ٹرینوں کی آوا جائی اور دنیا
کے شور شرابوں میں دب چکی اس عمارت کی آواز کو سننے کی کوشش کی ہے، جس کی آغوش میں
ہندوستان کا عظیم شاعر سو رہا ہے -
Mir Mohammad Taqi Mir |