Wednesday, May 4, 2011

१८७८ में लिखे गए ‘फ़साना-ए आज़ाद’ का एक हिस्सा | लखनऊ रेलवे स्टेशन


मियाँ आज़ाद और खोजी साहब ने असबाब कसा और स्टेशन पर दाखिल हुए. मियां खोजी को रूपये दिए कि टिकट लाओ. हज़रत जा डटे और जिस वक्त घंटी हुई ठन ठन और काँन्सटिबल ने कहा कि कानपुर के मुसाफिरों चलो! टिकट बट रहा है. खोजी भी लपके और वह रेला आया कि खुदा की पनाह. एक एक पर दस दस गिरे पड़ते हैं.
रतन नाथ सरशार