मुसलमान जब भारत आये तो अपने साथ ख़मीरी और तंदूरी रोटियाँ लाये। ये सादी रोटियाँ थीं, इन पर घी तक न लगता था। भारत आकर उन्होंने जिन अजीब चीज़ों को पहली बार देखा, उनमें पूरियाँ भी थीं। पहले तो उन्होंने अपनी रोटियों पर घी चपोड़ा, फिर उनमें परतें और तहें जमानी शुरू करदीं। इस तरह पराठे बने। शाही दस्तरख़ान तक पहुँचते पहुँचते ये पराठे बाकरख़ानी बन गये।
हमारे नवाब, बादशाह-ए अवध नसीरुद्दीन हैदर के ज़माने में मुहम्दू नाम के एक शख़्स, जो यहाँ का तो नहीं था कहीं बाहर से आया था, ने फिरंगी महल में एक खाने का होटल खोला। जल्द ही उसकी नहारी की शोहरत दूर दूर तक फैल गई। यहाँ तक कि लखनऊ के बड़े बड़े रईस और शहज़ादे भी उसके ज़ाएक़े की क़दर करने लगे। मुहम्दू ने नहारी के साथ खाने के लिए रोटियों के साथ भी तजुर्बे किये। उन तजुर्बों का बेहतरीन नतीजा शीरमाल की शक्ल में सामने आया।
हमारे नवाब, बादशाह-ए अवध नसीरुद्दीन हैदर के ज़माने में मुहम्दू नाम के एक शख़्स, जो यहाँ का तो नहीं था कहीं बाहर से आया था, ने फिरंगी महल में एक खाने का होटल खोला। जल्द ही उसकी नहारी की शोहरत दूर दूर तक फैल गई। यहाँ तक कि लखनऊ के बड़े बड़े रईस और शहज़ादे भी उसके ज़ाएक़े की क़दर करने लगे। मुहम्दू ने नहारी के साथ खाने के लिए रोटियों के साथ भी तजुर्बे किये। उन तजुर्बों का बेहतरीन नतीजा शीरमाल की शक्ल में सामने आया।
Sheermal - e Awadh |
आज कोई 180 साल बाद भी शीरमाल अवध से बाहर कहीं नहीं बनती। अगर बनती भी है हम से बेहतर नहीं। अब वक़्त है, कि अब तक नहीं, तो अब हमें शीरमाल को अवध की क़ौमी रोटी डिक्लेयर कर देनी चाहिये।