Thursday, January 10, 2013

साग़र ख़य्यामी / ساغر خيامي

जाड़े

ऐसी सर्दी न पड़ी ऐसे न जाड़े देखे
दो बजे दिन को अज़ाँ देते थे मुर्ग़ सारे
वो घटा टोप नज़र आते थे दिन को तारे
सर्द लहरों से जमे जाते थे मय के प्याले
एक शायर ने कहा चीख़ के साग़र भाई
उम्र में पहले पहल चमचे से चाय खाई।

आग छूने से भी हाथों में नमी लगती थी
सात कपड़ों में भी कपड़ों की कमी लगती थी
वक़्त के पांव की रफ़्तार थमी लगती थी
रास्ते में कोई बारात, जमी लगती थी
जम गया पुश्त पे घोड़े की बेचारा दूल्हा
खोद के खुरपी से साले ने उतारा दूल्हा।

कड़कड़ाते हुए जाड़े की क़यामत तौबा
आठ दिन कर न सके लोग हज़ामत तौबा
सर्द था उन दिनों बाज़ार-ए मुहब्बत तौबा
कर के बैठे थे शरीफ़न से शराफ़त तौबा
वो तो ज़हमत भी क़दमचों की न सर लेते थे
जो भी करना था बिछौने पे ही कर लेते थे।

सर्द गर्मी का भी मज़मून हुआ जाता था
जम के टॉनिक भी तो माजून हुआ जाता था
जिस्म लर्ज़े के सबब नून हुआ जाता था
ख़ासा शायर भी तो मजनून हुआ जाता था
कपकपाते हुये होटों से ग़ज़ल गाता था
पक्के रागों का वो उस्ताद नज़र आता था।

और भी सर्द हैं, माबूद ये एहसास न था
कब से आये नहीं महमूद यह एहसास न था
क़ुल्फ़ा खाते हैं कि अमरूद ये एहसास न था
नाक चेहरे पे है मौजूद ये एहसास न था
मुंह पे रूमाल रखे बज़्म से क्या आये थे
ऐसा लगता था वहाँ नाक कटा आये थे।

सख़्त सर्दी के सबब रंग था महफ़िल का अजीब
एक कम्बल में घुसे बैठे थे दस बीस ग़रीब
सर्द मौसम ने किया पंडितो मुल्ला को क़रीब
कड़कड़ाते हुए जाड़े वो सुख़न की तक़रीब
दरमियाँ शायरो सामे के थमे जाते थे
इतनी सर्दी थी कि अशआर जमे जाते थे॥


 जब भी कड़ाके की ठंड पड़ती है, तो मुझे साग़र ख़य्यामी (रशीदुल हसन नक़वी) की नज़्म ‘जाड़े’ से बेहतर कुछ नज़र नहीं आता। शायरी साग़र ख़य्यामी के ख़ून में शामिल थी। साग़र ख़य्यामी के बाप दादा भी लखनऊ के बेहतरीन शायरों में गिने जाते थे। 1997 में उन्हें ग़ालिब एवार्ड से नवाज़ा गया था।

____________________________

جاڑے


ایسی سردی نہ پڑی ایسے نہ جاڑے دیکھے
دو بجے دن کو اذاں دیتے تھے مرغ سارے
وہ گھٹا ٹوپ نظر آتے تھے دن کو تارے
سرد لہروں سے جمے جاتے تھے مے کے پیالے
ایک شاعر نے کہا چیخ کے ساغر بھائی
عمر میں پہلے پہل چمچے سے چائے کھائی.

آگ چھونے سے بھی ہاتھوں میں نمی لگتی تھی
سات کپڑوں میں بھی کپڑوں کی کمی لگتی تھی
وقت کے پاؤں کی رفتار تھمی لگتی تھی
راستے میں کوئی بارات، جمی لگتی تھی
جم گیا پشت پھ گھوڑے کی بیچارا دولہا
کھود کے كھرپي سے سالے نے اتارا دولہا.

كڑكڑاتے ہوئے جاڑوں کی قیامت توبہ
آٹھ دن کر نہ سکے لوگ حجامت توبہ
سرد تھا ان دنوں بازار محبت توبہ
کرکے بیٹھے تھے شريفاً سے شرافت توبہ
وہ تو زحمت بھی قدمچوں کی نہ سر لیتے تھے
جو بھی کرنا تھا بچھونے پہ ہی کر لیتے تھے.

سرد گرمی کا بھی مضمون ہوا جاتا تھا
جم کے ٹانک بھی تو معجون ہوا جاتا تھا
جسم لرزے کے سبب نون ہوا جاتا تھا
خاصہ شاعر بھی تو مجنون ہوا جاتا تھا
كپكپاتے ہوئے ہونٹوں سے غزل گاتا تھا
پکے راگوں کا وہ استاد نظر آتا تھا.

اور بھی سرد ہیں، معبود یہ احساس نہ تھا
کب سے آئے نہیں محمود یہ احساس نہ تھا
قلفا کھاتے ہیں کہ امرود یہ احساس نہ تھا
ناک چہرے پہ ہے موجود یہ احساس نہ تھا
منہ پہ رومال رکھے بذم سے کیا آئے تھے
ایسا لگتا تھا وہاں ناک کٹا آئے تھے.

سخت سردی کے سبب رنگ تھا محفل کا عجیب
ایک کمبل میں گھسے بیٹھے تھے دس بیس غریب
سرد موسم نے کیا پنڈت و ملا کو قریب
كڑكڑاتے ہوئے جاڑے وہ سخن کی تقريب
درمياں شاعر و سامع کے تھمے جاتے تھے
اتنی سردی تھی کہ اشعار جمے جاتے تھے
ساغر خيامي

No comments:

Post a Comment