Wednesday, June 5, 2013

सरहाने मीर के आहिस्ता बोलो

1782 : मीर मुहम्मद तक़ी दिल्ली छोड़ कर नवाब आसफुददौला की दावत पर लखनऊ आ तो गया। मगर न उसको यह शहर रास आया, न अवध दरबार। दरबार छूटा, फिर सेहत ने भी साथ छोड़ दिया। बेटी, बेटा और उन के बाद बीवी ने भी उसको छोड़ ख़ुदा का दामन थाम लिया।

1810 : 21 सितंबर, जुमे के दिन आख़िरकार मीर ने भी इस दुनिया-ए फ़ानी को अलविदा कहा और शहर के बाहर एक क़ब्रिस्तान में हमेशा हमेशा के लिये सुकूनत इख्तियार कर ली। मगर लखनऊ में किसी को काहे का सुकून। जल्दी ही हथौड़ों के शोर ने उसकी रूह को हिला दिया। उसकी क़ब्र के ऊपर लोहे ही पटरियाँ बिछाईं जा रही थीं।

1867 : 23 अप्रैल; लखनऊ को कानपुर से जोड़ने वाली (47 मील) इस रेलवे लाइन को पब्लिक के लिये खोल दिया गया। उस वक़्त यह अवध रोहेलखण्ड रेलवे का हिस्सा थी, जो 1925 में ईस्ट इंडियन रेलवे में शामिल कर ली गई। 1867 तक यह जगह हर तरफ़ बाग़ों से घिरी हुई थी। अब भी यहाँ बना रेलवे स्टेशन चारबाग़ के नाम से ही जाना जाता है।

1914 : 21 मार्च को उस इमारत की नीव रखी गई और बारह साल लगे उसे पूरा होने में जिसको आज हम रेलवे स्टेशन की शक्ल में देखते हैं। दुनिया में कम ही रेलवे स्टेशन इतने ख़ूबसूरत होंगे, जैसा कि हमारा चारबाग़ है। आसमान से देखने पर इसकी मीनारें ऐसी दिखती हैं जैसे शतरंज की बिसात पर मोहरे बिखरे हों।

1926 से आज तक शायद ही कोई ऐसा हो जिसने इस इमारत को देखा हो और इसकी शान-ओ शौकत से मुतासिर न हुआ हो। मगर क्या कभी किसी ने ट्रेनों की आवा-जाई और दुनिया के शोर शराबों में दब चुकी इस इमारत की आवाज़ को सुनने की कोशिश की है, जिसकी आगोश में हिंदुस्तान का अज़ीम शायर सो रहा है –

सरहाने मीर के आहिस्ता बोलो     |      अभी टुक रोते-रोते सो गया है     - मीर तक़ी मीर

Charbagh Railway Station, Lucknow
image taken on May 09, 2013
Nikon Coolpix L26

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Charbagh Railway Station, Lucknow
image taken on May 09, 2013
Nikon Coolpix L26

سرهانے میر کے آہستہ بولو 

 1782 : میر محمد تقی دہلی چھوڑ کر نواب آصف الدولہ کی دعوت پر لکھنؤ آ تو گیا. مگر نہ اس کو یہ شہر راس آیا، نہ اودھ دربار. دربار چھوٹا، پھر صحت نے بھی ساتھ چھوڑ دیا. بیٹی، بیٹا اور ان کے بعد بیوی نے بھی اس کو چھوڑ خدا کا دامن تھام لیا.

21 : 1810 ستمبر، جمعہ کے دن بالآخر میر نے بھی اس دنیاء فاني کو الوداع کہا اور شہر کے باہر ایک قبرستان میں ہمیشہ ہمیشہ کے لئے سكونت اختیار کر لی. مگر لکھنؤ میں کسی کو کاہے کا سکون. جلد ہی ہتھوڑے کے شور نے اس کی روح کو ہلا دیا. اس کی قبر کے اوپر لوہے ہی پٹرياں بچھائی جا رہی تھیں.

1867 : 23 اپریل؛ لکھنؤ کو کانپور سے جوڑنے کرنے والی (47 میل) اس ریلوے لائن کو پبلک کے لیے کھول دیا گیا. اس وقت یہ اودھ روهیلكھنڈ ریلوے کا حصہ تھی جو 1925 میں ایسٹ انڈین ریلوے میں شامل کر لی گئی. 1867 تک یہ جگہ ہر طرف باغوں سے گھری ہوئی تھی. اب بھی یہاں بنا ریلوے اسٹیشن چارباغ کے نام سے ہی جانا جاتا ہے.

1914 : 21 مارچ کو اس عمارت کی بنیاد رکھی گئی اور بارہ سال لگے اسے مکمل ہونے میں جس کو آج ہم ریلوے اسٹیشن کی شکل میں دیکھتے ہیں. دنیا میں کم ہی ریلوے اسٹیشن اتنے خوبصورت ہوں گے، جیسا کہ ہمارا چارباغ ہے. آسمان سے دیکھنے پر اس کی ميناریں ایسی نظر آتی ہیں جیسے شطرنج کی بساط پر مہرے بکھرے ہوں.

1926 سے آج تک شاید ہی کوئی ایسا ہو جس نے اس عمارت کو دیکھا ہو اور اس کی شان و شوکت سے متاثر نہ ہوا ہو. مگر کیا کبھی کسی نے ٹرینوں کی آوا جائی اور دنیا کے شور شرابوں میں دب چکی اس عمارت کی آواز کو سننے کی کوشش کی ہے، جس کی آغوش میں ہندوستان کا عظیم شاعر سو رہا ہے -

Mir Mohammad Taqi Mir

Thursday, January 10, 2013

साग़र ख़य्यामी / ساغر خيامي

जाड़े

ऐसी सर्दी न पड़ी ऐसे न जाड़े देखे
दो बजे दिन को अज़ाँ देते थे मुर्ग़ सारे
वो घटा टोप नज़र आते थे दिन को तारे
सर्द लहरों से जमे जाते थे मय के प्याले
एक शायर ने कहा चीख़ के साग़र भाई
उम्र में पहले पहल चमचे से चाय खाई।

आग छूने से भी हाथों में नमी लगती थी
सात कपड़ों में भी कपड़ों की कमी लगती थी
वक़्त के पांव की रफ़्तार थमी लगती थी
रास्ते में कोई बारात, जमी लगती थी
जम गया पुश्त पे घोड़े की बेचारा दूल्हा
खोद के खुरपी से साले ने उतारा दूल्हा।

कड़कड़ाते हुए जाड़े की क़यामत तौबा
आठ दिन कर न सके लोग हज़ामत तौबा
सर्द था उन दिनों बाज़ार-ए मुहब्बत तौबा
कर के बैठे थे शरीफ़न से शराफ़त तौबा
वो तो ज़हमत भी क़दमचों की न सर लेते थे
जो भी करना था बिछौने पे ही कर लेते थे।

सर्द गर्मी का भी मज़मून हुआ जाता था
जम के टॉनिक भी तो माजून हुआ जाता था
जिस्म लर्ज़े के सबब नून हुआ जाता था
ख़ासा शायर भी तो मजनून हुआ जाता था
कपकपाते हुये होटों से ग़ज़ल गाता था
पक्के रागों का वो उस्ताद नज़र आता था।

और भी सर्द हैं, माबूद ये एहसास न था
कब से आये नहीं महमूद यह एहसास न था
क़ुल्फ़ा खाते हैं कि अमरूद ये एहसास न था
नाक चेहरे पे है मौजूद ये एहसास न था
मुंह पे रूमाल रखे बज़्म से क्या आये थे
ऐसा लगता था वहाँ नाक कटा आये थे।

सख़्त सर्दी के सबब रंग था महफ़िल का अजीब
एक कम्बल में घुसे बैठे थे दस बीस ग़रीब
सर्द मौसम ने किया पंडितो मुल्ला को क़रीब
कड़कड़ाते हुए जाड़े वो सुख़न की तक़रीब
दरमियाँ शायरो सामे के थमे जाते थे
इतनी सर्दी थी कि अशआर जमे जाते थे॥


 जब भी कड़ाके की ठंड पड़ती है, तो मुझे साग़र ख़य्यामी (रशीदुल हसन नक़वी) की नज़्म ‘जाड़े’ से बेहतर कुछ नज़र नहीं आता। शायरी साग़र ख़य्यामी के ख़ून में शामिल थी। साग़र ख़य्यामी के बाप दादा भी लखनऊ के बेहतरीन शायरों में गिने जाते थे। 1997 में उन्हें ग़ालिब एवार्ड से नवाज़ा गया था।

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جاڑے


ایسی سردی نہ پڑی ایسے نہ جاڑے دیکھے
دو بجے دن کو اذاں دیتے تھے مرغ سارے
وہ گھٹا ٹوپ نظر آتے تھے دن کو تارے
سرد لہروں سے جمے جاتے تھے مے کے پیالے
ایک شاعر نے کہا چیخ کے ساغر بھائی
عمر میں پہلے پہل چمچے سے چائے کھائی.

آگ چھونے سے بھی ہاتھوں میں نمی لگتی تھی
سات کپڑوں میں بھی کپڑوں کی کمی لگتی تھی
وقت کے پاؤں کی رفتار تھمی لگتی تھی
راستے میں کوئی بارات، جمی لگتی تھی
جم گیا پشت پھ گھوڑے کی بیچارا دولہا
کھود کے كھرپي سے سالے نے اتارا دولہا.

كڑكڑاتے ہوئے جاڑوں کی قیامت توبہ
آٹھ دن کر نہ سکے لوگ حجامت توبہ
سرد تھا ان دنوں بازار محبت توبہ
کرکے بیٹھے تھے شريفاً سے شرافت توبہ
وہ تو زحمت بھی قدمچوں کی نہ سر لیتے تھے
جو بھی کرنا تھا بچھونے پہ ہی کر لیتے تھے.

سرد گرمی کا بھی مضمون ہوا جاتا تھا
جم کے ٹانک بھی تو معجون ہوا جاتا تھا
جسم لرزے کے سبب نون ہوا جاتا تھا
خاصہ شاعر بھی تو مجنون ہوا جاتا تھا
كپكپاتے ہوئے ہونٹوں سے غزل گاتا تھا
پکے راگوں کا وہ استاد نظر آتا تھا.

اور بھی سرد ہیں، معبود یہ احساس نہ تھا
کب سے آئے نہیں محمود یہ احساس نہ تھا
قلفا کھاتے ہیں کہ امرود یہ احساس نہ تھا
ناک چہرے پہ ہے موجود یہ احساس نہ تھا
منہ پہ رومال رکھے بذم سے کیا آئے تھے
ایسا لگتا تھا وہاں ناک کٹا آئے تھے.

سخت سردی کے سبب رنگ تھا محفل کا عجیب
ایک کمبل میں گھسے بیٹھے تھے دس بیس غریب
سرد موسم نے کیا پنڈت و ملا کو قریب
كڑكڑاتے ہوئے جاڑے وہ سخن کی تقريب
درمياں شاعر و سامع کے تھمے جاتے تھے
اتنی سردی تھی کہ اشعار جمے جاتے تھے
ساغر خيامي