लखनऊ में मुर्ग़ों की लड़ाई का यह तरीका़ था कि मुर्ग़ के कांटे बाँध दिए जाते ताकि उन को ज़रर न पहुँच सके. चोंच चाक़ू से छील कर तेज़ और नुकीली की जाती और जोड़ के दोनों मुर्ग़ पाली में छोड़ दिए जाते. .... अब दोनों मुर्ग़ चोंचों और लातों से लड़ना शुरू करते. मुर्ग़बाज़ अपने अपने मुर्ग़ को उभारते ... और चिल्ला चिल्ला के कहते- “हाँ बेटा! शाब्बश है!” “हाँ बेटा, काट!” “फिर यहीं पर.”.......
- मौलाना अब्दुल हलीम शरर लखनवी
لکھنؤ میں مرغوں کی لڑائی کا یہ طریقہ تھا کہ مرغ کے کانٹے باندھ دیے جاتے تاکہ ان کو ضرر نہ پہنچ سکے. چونچ چاقو سے چھیل کر تیز اور نوکیلی کی جاتی اور جوڑ کے دونوں مرغ پالی میں چھوڑ دیے جاتے...... اب دونوں مرغ چونچوں اور لاتوں سے لڑنا شروع کرتے. مرغ باز اپنے اپنے مرغ کو ابھرتے... اور چلّا چلّا کے کہتے- ہاں بیٹا! شابش ہے! ہاں بیٹا، کاٹ! پھر یہیں پر....
- مولانا عبدالحلیم شررلکھنوی