Saturday, May 26, 2012

मिटे नामियों के निशां कैसे कैसे – ख़्वाजा आतिश

आज लखनऊ में मैं नौजवानों की किसी महफ़िल में अगर आतिश का नाम लूं तो शायद बहुत कम ही लोग इसे समझ पाएंगे। मगर पूरी दुनिया में कहीं भी उर्दू (या हिन्दी भी) जानने वालों की महफ़िल में मैं उनका एक शेर पढ़ दूं तो शायद हर एक ने सुना होगा –
ज़मीन-ए चमन गुल खिलाती है क्या क्या : बदलता है रंग आसमां कैसे कैसे ॥

ख़्वाजा हैदर अली आतिश थे तो दिल्ली के किसी सूफ़ी ख़ानदान के, मगर उनके वालिद ख़्वाजा अली बख़्श फैज़ाबाद आकार बस गए थे। वहीं 1778 में आतिश का जन्म हुआ। कमउमरी में ही बाप का साया सर से उठ गया। सो पढ़ाई ठीक से न हो सकी। मगर तलवारबाज़ी में कोई जवाब न था। बड़े होकर नवाब मिर्ज़ा मुहम्मद तक़ी के तलवारबाज़ों में शामिल हो गये। फिर उन्हीं के साथ लखनऊ चले आये।

लखनऊ की तो फ़िज़ा में ही शाएरी थी, और मिज़ाज ख़ानदानी सूफ़ियाना। मूसहफ़ी जैसे उस्ताद का साथ मिल गया तो शायरी ऐसी परवान चढ़ी कि सर चढ़ कर बोलने लगी। नवाब मुहम्मद तक़ी की मौत के बाद किसी और से जुड़ने से इंकार कर दिया। पूरी तरह दरवेशी इख़्तियार कर ली। लिबास गेरुए रंग का चोग़ा। हाथ में मोटा डांडा। मगर कमर से तलवार न छूटी। बाद में भांग भी पीनी शुरू कर दी और पूरी तरह अपनी ही दुनिया में रंग गये।
 
शाह-ए लखनऊ से अस्सी रुपये महीने के मिलते थे। उसी में गुज़र होती थी। नावाज़गंज के क़रीब माधोलाल की चढ़ाई के पास एक छोटा सा बाग़ीचा जिसमें एक कच्चा मकान भी था, ख़रीद लिया था। शादी भी की और एक बेटा भी हुआ। आख़िर उम्र में आँखों की बीनाई जाती रही थी। 1847 में इन्तेक़ाल के वक़्त काफ़ी बीमार और कमज़ोर हो गये थे। उनके घर में ही उनको दफन किया गया।
Khwaja Haidar Ali Atish
आये भी लोग बैठे भी उठ भी खड़े हुये
मैं जा ही ढूंढता तेरी महफ़िल में रह गया