Thursday, April 19, 2012

जिसको दे न मौला.......

कहते हैं पुराने लखनऊ में कुछ दूकानदार अब भी आसफ़-उद-दौला का नाम लेकर दूकानें खोलते हैं. आसफ़-उद-दौला 23 सितम्बर, 1748 को पैदा हुए, 26 जनवरी, 1775 को उन्हें अवध के नवाब वज़ीर के ओहदे से नवाज़ा गया, और 28 जनवरी 1775 को अपने पिता शुजा-उद-दौला की मृत्यु के बाद 26 साल की उम्र में नवाब बने. आज जिस लखनऊ पर आप फख़्र करते हैं, यह लखनऊ लखनऊ होता ही नहीं अगर आसफ़-उद-दौला 1775 में अवध की राजधानी को फैजाबाद से लखनऊ न ले आते. 21 सितम्बर 1797 को उन्होंने हमेशा के लिये ख़ामोशी इख़्तियार कर ली और इमामबाड़ा आसफ़ी में आरामफ़र्मा हैं.

1783 के एक दशक तक चले अकाल के वक़्त जिसमें सब कुछ बर्बाद हो चुका था, आसफ़-उद-दौला ने आसफ़ी (बड़ा) इमामबाड़ा बनवाना (1784) शुरू ही इस लिये किया था कि लोगों को हक़ का रोज़गार मिल जाये और वह सिर्फ उनके रहम पर न रहें. कहा जाता है दिन भर दीवारें खड़ी होती थीं और रात में गिरा दी जाती थीं. और इमारत सालों साल तक तक पूरी न हुई जब तक अकाल चलता रहा.

सदियों से यह सदा लखनऊ की गलियों में गूंजती आ रही है, और ताक़यामत गूंजती रहेगी –

जिसको दे न मौला, उसके दे आसफ़-उद-दौला.’

Nawab Asaf ud Daula