Friday, September 7, 2012

अजूबा-ए लखनऊ : दोहरिया कबूतर

पता नहीं यह बात कितनी सही है, कितनी ग़लत; सच है या झूठ; मगर लखनऊ की तारीख़ में इसका ज़िक्र मिलता है। यहाँ तक कि शरर लखनवी ने भी इस बारे में लिखा है। लखनऊ की कबूतरबाज़ी, बटेरबाज़ी, मुर्ग़बाज़ी के बारे में आप सब जानते ही हैं। मैं भी लिख चुका हूँ। मगर लखनऊ की हर बात में कोई अजूबा न जुड़ा हो, यह तो हो नहीं सकता न।

नवाब नसीरुद्दीन हैदर के ज़माने में थे कोई कबूतरों के माहिर। क्या किया कि दो कबूतर के बच्चे लिये। एक का दायाँ बाज़ू काटा, दूसरे का बायाँ, और जोड़ दिया आपस में। दोनों बाज़ुओं को आपस में जोड़ कर टाँके लगाये, पाला पोसा, बड़ा किया और उड़ा दिया। ये कहलाये ‘दोहरिया कबूतर’। नवाब साहब जब गोमती के एक किनारे पर बैठे आराम फरमा रहे होते थे तो ये साहब दूसरे किनारे से इन कबूतरों को उड़ा दिया करते थे। कबूतर अक्सर जाकर नवाब साहब के पास बैठ जाया करते थे और वह खुश होकर इनाम लुटाया करते थे।


तस्वीर (ज़ाहिर सी बात है) ख़्याली है

عجوبۂ لکھنؤ : دوہريا کبوتر

معلوم نہیں یہ بات کتنی صحیح ہے، کتنی غلط؛ سچ ہے یا جھوٹ؛ مگر لکھنؤ کی تاریخ میں اس کا ذکر ملتا ہے. یہاں تک کہ شرر لکھنوی نے بھی اس بارے میں لکھا ہے. لکھنؤ کی كبوتربازي، بٹیربازي، مرغ بازي کے بارے میں آپ سب جانتے ہی ہیں. میں بھی لکھ چکا ہوں. مگر لکھنؤ کی ہر بات میں کوئی عجوبہ نہ جڑا ہو، یہ تو ہو نہیں سکتا نہ.

نواب نصیرالدین حیدر کے زمانے میں تھے کوئی کبوتروں کے ماہر. کیا کیا، کہ دو کبوتر کے بچے لیے. ایک کا داہنا بازو کاٹا، دوسرے کا بایاں، اور جوڑ دیا آپس میں. دونوں بازو کو آپس میں جوڑ کر ٹانکے لگائے، پالا پوسا، بڑا کیا اور اڑا دیا. یہ كہلاۓ 'دوہريا کبوتر'. نواب صاحب جب گومتی کے ایک کنارے پر بیٹھے آرام فرما رہے ہوتے تھے تو یہ صاحب دوسرے کنارے سے ان کبوتروں کو اڑا دیا کرتے تھے. کبوتر اکثر جا کر نواب صاحب کے پاس بیٹھ جایا کرتے تھے اور وہ خوش ہو کر انعام لٹايا کرتے تھے.