लखनऊ वालों को बालाई का शौक़ शुरू से ही रहा है. बालाई की तहों को इतनी खूबसूरती से जमाना शायद ही किसी और शहर के लोगों को आता हो. दरअसल इसको पुराने ज़माने से मलाई ही कहा जाता रहा है. नवाब आसिफुद्दौला बहादुर को यह इस क़दर पसंद थी कि वह इसको ख़ास तरीकों से तैयार करवाया करते थे. उन्हों ने इसका नाम मलाई से बालाई कर दिया क्योंकि यह दूध के ऊपर तैरती है = बाला + मलाई. फिर तो यह लफ्ज़ इस क़दर ज़बान चढ़ा कि हर शहर में फैल गया और बालाई बोलना शरीफ़ाना ज़बान का हिस्सा बन गया. तो अगली बार अगर आप लखनऊ में हैं, और अपने आप को शरीफ़ समझते हैं, और बालाई की जगह मलाई पर हाथ साफ़ कर रहे हैं..... तो या तो मलाई को दुरुस्त कर लीजिएगा, या शरीफ़ को.