Friday, December 16, 2011

अमीर मिनाई

कहाँ होंगी अमीर ऐसी अदाएं हूर-ओ ग़िल्माँ में
रहेगा खु़ल्द में भी  याद हम को लखनऊ बरसों

ग़िल्माँ : वह लड़के जो जन्नत में आप की खिदमत में मौजूद होंगे. (ताकि कभी तो आप हूरों को बख्श दें)
खु़ल्द : जन्नत

کہاں ہوں گی امیر ایسی ادائیں حوروغلماں میں
رہے گا  خلد میں بھی  یاد ہم کو  لکھنؤ  برسوں

फ़साना-ए आज़ाद

१८७८ में सरशार के लिखे गए फ़साना-ए आज़ाद में उस ज़माने का लखनऊ बिखरा पड़ा है।
एक नज़र डालें तो ज़रा :

मियां आज़ाद निहारमुंह शहर में चक्कर लगा रहे थे तो एक दफा ही क्या देखते हैं कि सामने से एक ज़रनिगार पुरबहार फ़िनस बड़े ठस्से और धूम धड़क्के से आ रही है। कहारों की हरी हरी वर्दी तोतेफड़क, लाल लाल पगिया फ़ौक़ुलभड़क, कंधे जोड़े हुए शहगाम जा रहे हैं। छिटका सुर्ख़ा सुर्ख़ लाल भभूका, फ़िनस ज़रनिगारी सवारी है या बाद-ए बहारी। एक तरहदार बाग़-ओ बहार गुल-ए इज़ार शोख़-ओ अययार महरी साथ है। नज़र इधर उधर मगर फ़िनस के एक कोने पर हाथ है। बेहिजाब बर-अफ़्गंदा नक़ाब, चंदे खुर्शीद चंदे महताब, आँखों में सह्बा-ए जवानी का सुरूर, वह हुस्न वह नूर कि...........