१८७८ में सरशार के लिखे गए फ़साना-ए आज़ाद में उस ज़माने का लखनऊ बिखरा पड़ा है।
एक नज़र डालें तो ज़रा :
मियां आज़ाद निहारमुंह शहर में चक्कर लगा रहे थे तो एक दफा ही क्या देखते हैं कि सामने से एक ज़रनिगार पुरबहार फ़िनस बड़े ठस्से और धूम धड़क्के से आ रही है। कहारों की हरी हरी वर्दी तोतेफड़क, लाल लाल पगिया फ़ौक़ुलभड़क, कंधे जोड़े हुए शहगाम जा रहे हैं। छिटका सुर्ख़ा सुर्ख़ लाल भभूका, फ़िनस ज़रनिगारी सवारी है या बाद-ए बहारी। एक तरहदार बाग़-ओ बहार गुल-ए इज़ार शोख़-ओ अययार महरी साथ है। नज़र इधर उधर मगर फ़िनस के एक कोने पर हाथ है। बेहिजाब बर-अफ़्गंदा नक़ाब, चंदे खुर्शीद चंदे महताब, आँखों में सह्बा-ए जवानी का सुरूर, वह हुस्न वह नूर कि...........
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