Monday, November 26, 2012

लखना का लखनऊ और बावन मछलियाँ



अब मछ्छी भवन का नाम मछ्छी भवन क्यों पड़ा? मुझे क्या पता भला। अरे क़िला था, उसपर मलियाँ बनीं थीं। तो मछ्छी भवन। और क्या? मगर वह तो कहते हैं कि बावन (52) मछलियाँ बनीं थीं, इस लिए नाम मछ्छी बावन था, न कि मछ्छी भवन। लोगों ने नाम बिगाड़ दिया। तो मैं क्या करूँ?

1590 में मुग़ल बादशाह अकबर ने जब मुल्क को बारह सूबों में बांटा तो अवध का सूबा शेख़ अब्दुर्रहीम साहब को थमा दिया। शेख़ साहब थे तो बिजनौर के, आ पहुंचे हमारे शहर और शाह पीर मुहम्मद टीले (अरे वही अपना लक्ष्मण टीला) पर अपना पञ्च महल खड़ा कर लिया। उसके बाद टीले के पास एक छोटा सा, मगर मज़बूत क़िला बनाया गया जिसके एक मकान में छब्बीस (26) महराबें थीं। हर महराब पर दो मछलियाँ बनी थीं। यानि कि कुल बावन।

शेख़ साहब और उनके इस क़िले का नाम ऐसा बुलंद हुआ, कि लोग बताते नहीं थकते थे
अरे, कल को तो मैं उधर गया था.
अरे! कहाँ?’
अरे वहीं, जहां हैं मछ्छी बावन.
अरे वहाँ! हमें भी ले लेते भई. हम भी देख आते.
हाँ भाई, क्या शान है. वहाँ की तो बात ही निराली है.....

1910 के आस पास किंग जार्ज नाम का छोटा सा मेडिकल कालेज सारी मछलियाँ खा गया। मछलियों का बस नाम रह गया। और जिन हाथों ने वह मछलियाँ बनाईं थीं, वह क़िला बनाया था; और उस क़िले के आस पास जो बस्ती बसनी शुरू हुई थी, उसकी बहुत सी इमारतें, उन हाथों का क्या? जिस आर्किटेक्ट ने पहली बार उस शहर का ख़ाका खींचा, जो बाद में लखनऊ कहलाया; जब तक लखनऊ का नाम ज़िंदा रहेगा, उसका नाम ज़िंदा रहेगा लखना।

बिना लखना बोले लखनऊ कहिए तो ज़रा.... कोशिश तो कीजिये जनाब॥
Gulistan-e Lucknow
Machchi Bawan in 1858

اب مچھي بھون کا نام مچھي بھون کیوں پڑا؟ مجھے کیا پتہ بھلا. ارے قلعہ تھا، اس پر مچھلیاں بنیں تھیں. تو مچھي بھون. اور کیا؟ مگر وہ تو کہتے ہیں کہ باون (52) مچھلیاں بنیں تھیں، اس لئے نام مچھي باون تھا، نہ کہ مچھي بھون. لوگوں نے نام بگاڑ دیا. تو میں کیا کروں؟

 1590 میں مغل بادشاہ اکبر نے جب ہند کو بارہ صوبوں میں بانٹا تو اودھ کا صوبہ شیخ عبدالرحیم صاحب کو تھما دیا. شیخ صاحب تھے تو بجنور کے، آ پہنچے ہمارے شہر اور شاہ پیر محمد ٹیلے (ارے وہی اپنا لکشمن ٹيلا) پر اپنا پنچ محل کھڑا کر لیا. اس کے بعد ٹیلے کے پاس ایک چھوٹا سا، مگر مضبوط قلعہ بنایا گیا جس کے ایک مکان میں چھبیس (26) محرابیں تھیں. ہر محراب پر دو مچھلیاں بنی تھیں. یعنی کہ کُل باون.

 شیخ صاحب اور ان کے اس قلعہ کا نام ایسا بلند ہوا، کہ لوگ بتاتے نہیں تھكتے تھے -

'ارے، کل کو تو میں اُدھر گیا تھا.'
'ارے! کہاں؟'
'ارے وہیں، جہاں ہیں مچھي باون.'
"ارے وہاں! ہمیں بھی لے لیتے بھئی. ہم بھی دیکھ آتے.'
"ہاں بھائی، کیا شان ہے. وہاں کی تو بات ہی نرالے ہے...'

 1910 کے آس پاس کنگ جارج نام کا چھوٹا سا میڈیکل کالج ساری مچھلیاں کھا گیا. مچھلیوں کا بس نام رہ گیا. اور جن ہاتھوں نے وہ مچھلیاں بنائیں تھیں، وہ قلعہ بنایا تھا؛ اور اس قلعہ کے آس پاس جو بستی بسني شروع ہوئی تھی، اس کی بہت سی عمارتیں، ان ہاتھوں کا کیا؟ جس اركیٹكٹ نے پہلی بار اس شہر کا خاكہ کھینچا، جو بعد میں لکھنؤ کہلایا؛ جب تک لکھنؤ کا نام زندہ رہے گا، اس کا نام زندہ رہے گا - لکھنا.

بغیر لکھنا بولے لکھنؤ کہیے تو ذرا .... کوشش تو کیجئے جناب.

Monday, November 12, 2012

सहर लखनवी

यह शहर मुहब्बत का बाज़ार है
यहाँ जो है जी का ख़रीदार है
मुअत्तर है हर एक इस की गली
खिलाते हैं गुल पाएंचे की कली

इसी शहर का नाम है लखनऊ
इसी शहर की सहर है गुफ़्तगू
अजब शहर है कुछ अजब लोग हैं
बहुत हैं मगर मुन्तख़ब लोग हैं


मुअत्तर : महकती हुई (अत्र/इत्र में डूबी); मुन्तख़ब : ख़ास, चुने हुए

Gulistan-e Lucknow
Shahar-e Lucknow
 
یہ شہر محبّت کا بازار ہے
یہاں جو ہے جی کا خریدار ہے
معطر ہے ہر ایک اس کی گلی
کھلاتے ہیں گل پائنچے کی کلی
 
اسی شہر کا نام ہے لکھنؤ
اسی شہر کی سحر ہے گفتگو
عجب شہر ہے کچھ عجب لوگ ہیں
بہت ہیں مگر منتخب لوگ ہیں

 سحر لکھنوی

Friday, September 7, 2012

अजूबा-ए लखनऊ : दोहरिया कबूतर

पता नहीं यह बात कितनी सही है, कितनी ग़लत; सच है या झूठ; मगर लखनऊ की तारीख़ में इसका ज़िक्र मिलता है। यहाँ तक कि शरर लखनवी ने भी इस बारे में लिखा है। लखनऊ की कबूतरबाज़ी, बटेरबाज़ी, मुर्ग़बाज़ी के बारे में आप सब जानते ही हैं। मैं भी लिख चुका हूँ। मगर लखनऊ की हर बात में कोई अजूबा न जुड़ा हो, यह तो हो नहीं सकता न।

नवाब नसीरुद्दीन हैदर के ज़माने में थे कोई कबूतरों के माहिर। क्या किया कि दो कबूतर के बच्चे लिये। एक का दायाँ बाज़ू काटा, दूसरे का बायाँ, और जोड़ दिया आपस में। दोनों बाज़ुओं को आपस में जोड़ कर टाँके लगाये, पाला पोसा, बड़ा किया और उड़ा दिया। ये कहलाये ‘दोहरिया कबूतर’। नवाब साहब जब गोमती के एक किनारे पर बैठे आराम फरमा रहे होते थे तो ये साहब दूसरे किनारे से इन कबूतरों को उड़ा दिया करते थे। कबूतर अक्सर जाकर नवाब साहब के पास बैठ जाया करते थे और वह खुश होकर इनाम लुटाया करते थे।


तस्वीर (ज़ाहिर सी बात है) ख़्याली है

عجوبۂ لکھنؤ : دوہريا کبوتر

معلوم نہیں یہ بات کتنی صحیح ہے، کتنی غلط؛ سچ ہے یا جھوٹ؛ مگر لکھنؤ کی تاریخ میں اس کا ذکر ملتا ہے. یہاں تک کہ شرر لکھنوی نے بھی اس بارے میں لکھا ہے. لکھنؤ کی كبوتربازي، بٹیربازي، مرغ بازي کے بارے میں آپ سب جانتے ہی ہیں. میں بھی لکھ چکا ہوں. مگر لکھنؤ کی ہر بات میں کوئی عجوبہ نہ جڑا ہو، یہ تو ہو نہیں سکتا نہ.

نواب نصیرالدین حیدر کے زمانے میں تھے کوئی کبوتروں کے ماہر. کیا کیا، کہ دو کبوتر کے بچے لیے. ایک کا داہنا بازو کاٹا، دوسرے کا بایاں، اور جوڑ دیا آپس میں. دونوں بازو کو آپس میں جوڑ کر ٹانکے لگائے، پالا پوسا، بڑا کیا اور اڑا دیا. یہ كہلاۓ 'دوہريا کبوتر'. نواب صاحب جب گومتی کے ایک کنارے پر بیٹھے آرام فرما رہے ہوتے تھے تو یہ صاحب دوسرے کنارے سے ان کبوتروں کو اڑا دیا کرتے تھے. کبوتر اکثر جا کر نواب صاحب کے پاس بیٹھ جایا کرتے تھے اور وہ خوش ہو کر انعام لٹايا کرتے تھے.

Sunday, July 29, 2012

आबदारख़ाना-ए लखनऊ


आबदारख़ाना – नाम सुना है कभी??? मुश्किल से ही कोई हाँ कहेगा। आज तो हमें बावर्चीख़ाना तक सुनाई नहीं पड़ता जो कि घर घर की बात है। हर जगह किचन हो गया है। तो आबदारख़ाना क्या सुनाई पड़ेगा जो नवाबों और अमीरों की बात थी।

आबदारख़ाना, यानि कि पीने के पानी का इंतेज़ाम या उसको रखने की जगह। बाक़ाएदा इसके दारोग़ा होते थे, यानि कि इनचार्ज और उनके नीचे मुलाज़िमों की फौज। पानी कोरे घड़ों में भर कर रखा जाता। पीने के लिये ख़ूबसूरत आबख़ोरे (अरे कुल्हड़ मत कहिये जनाब। आबख़ोरा में जो नवाबी झलकती है वह लफ़्ज़ कुल्हड़ में कहाँ) रखे जाते। घड़ों पर लाल रंग का कपड़ा चढ़ा दिया जाता था और उसे हमेशा पानी से तर रखा जाता था। हवा जितनी गरम होती थी, घड़े का पानी उतना ही ठंडा होता था। यह तरीक़ा हम अब भी प्याऊ पर देखते हैं।

सुराहियाँ लखनऊ की मिट्टी से हमेशा बेहतरीन बनी हैं, या झज्झर, जिनके मुंह पर कपड़ा बांध कर पेड़ों की डालियों पर उल्टा लटका देते थे। बरसात के मौसम में यह सब काम न आता, तो घड़ों को रस्सी से बांध कर कुएं के पानी में डुबा कर रखते थे। वक़्त के साथ नवाबी ख़त्म हो गई, नवाब नहीं रहे। आबदारख़ाने भी नहीं रहे।


آب دار خانۂ لکھنؤ

آب دار خانہ - نام سنا ہے کبھی؟؟؟ مشکل سے ہی کوئی ہاں کہے گا. آج تو ہمیں باورچي خانہ تک سنائی نہیں پڑتا جو کہ گھر گھر کی بات ہے. ہر جگہ کِچن ہو گیا ہے. آب دار خانہ کیا سنائی پڑے گا جو نوابوں اور امیروں کی بات تھی.

آب دار خانہ، یعنی کہ پینے کے پانی کا انتظام یا اس کو رکھنے کی جگہ. باقائدہ اس داروغہ ہوتے تھے، یعنی کہ اِنچارج اور ان کے نیچے ملازموں کی فوج. پانی كورے گھڑوں میں بھر کر رکھا جاتا. پینے کے لیے خوبصورت آب خورے (ارے کلہڑ مت کہیے جناب. آب خورہ میں جو نوابی جھلکتی ہے وہ لفظ کلہڑ میں کہاں) رکھے جاتے. گھڑوں پر سرخ رنگ کا کپڑا چڑھا دیا جاتا تھا اور اسے ہمیشہ پانی سے تر رکھا جاتا تھا. ہوا جتنی گرم ہوتی تھی، گھڑے کا پانی اتنا ہی ٹھنڈا ہوتا تھا. یہ طریقہ ہم اب بھی پياؤ ​​پر دیکھتے ہیں.

سراهياں لکھنؤ کی مٹی سے ہمیشہ ہی بہترین بنی ہیں، یا جھجھر، جن کے منہ پر کپڑا باندھ کر درختوں کی شاخوں پر الٹا لٹکا دیتے تھے. بارش کے موسم میں یہ سب کام نہ آتا، تو گھڑوں کو رسی سے باندھ کر کنویں کے پانی میں ڈبو کر رکھتے تھے. وقت کے ساتھ نوابی ختم ہو گئی. نواب نہیں رہے. آب دار خانے بھی نہیں رہے.


Wednesday, June 13, 2012

आम क्या हैं ख़ुदा की कुदरत हैं; जिन से हिंदोस्तान जन्नत है

दुनिया में कहीं भी अगर आम का नाम लिया जाता है तो भारत का नाम उसके साथ जुड़ ही जाता है। आम का नाम भारत में बहुत ही आम है। और ऐसे ही आम हैं यहाँ आम को चाहने वाले –
हिन्द के सब मेवों का सरदार है | रौनक़ हर कूचा ओ बाज़ार है (इसमाईल मेरठी)

आम को चाहने वाले भारत के हर कोने में मौजूद हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब का आम खाने का क़िस्सा तो दुनिया जानती है। ऐसे ही यहाँ लखनऊ में भी थे कोई अब्दुल बाक़ी साहब। आम ऐसे पसंद आये कि पूरी मसनवी (बहुत लंबी कविता) लिख मारी। कुल बीस पेज की यह मसनवी ‘अम्बा नामा’ 1922 में लखनऊ से छप भी चुकी है। ज़ाएक़े के लिये कुछ शेर देखिये –

मग़्ज़ बादाम से है बेहतर आम | जिस का बे दाम बंदा है बादाम।
तुख़्म शीर ओ शकर में पलता है | बन के तब शहद फल निकलता है।
जब कि ये झूलते हैं शाख़ों पर | हूरें गाती हैं अपने काख़ों पर।
अब्र मस्ताना वार झूमता है | शौक़ से मुंह को उनके चूमता है।
...    ...
आम क्या हैं ख़ुदा की कुदरत हैं | जिन से हिंदोस्तान जन्नत है॥
{मग़्ज़: गूदा; तुख़्म: बीज; काख़: बारामदा या गैलरी; अब्र: बादल}
Lucknow : the City of Mangoes

Saturday, May 26, 2012

मिटे नामियों के निशां कैसे कैसे – ख़्वाजा आतिश

आज लखनऊ में मैं नौजवानों की किसी महफ़िल में अगर आतिश का नाम लूं तो शायद बहुत कम ही लोग इसे समझ पाएंगे। मगर पूरी दुनिया में कहीं भी उर्दू (या हिन्दी भी) जानने वालों की महफ़िल में मैं उनका एक शेर पढ़ दूं तो शायद हर एक ने सुना होगा –
ज़मीन-ए चमन गुल खिलाती है क्या क्या : बदलता है रंग आसमां कैसे कैसे ॥

ख़्वाजा हैदर अली आतिश थे तो दिल्ली के किसी सूफ़ी ख़ानदान के, मगर उनके वालिद ख़्वाजा अली बख़्श फैज़ाबाद आकार बस गए थे। वहीं 1778 में आतिश का जन्म हुआ। कमउमरी में ही बाप का साया सर से उठ गया। सो पढ़ाई ठीक से न हो सकी। मगर तलवारबाज़ी में कोई जवाब न था। बड़े होकर नवाब मिर्ज़ा मुहम्मद तक़ी के तलवारबाज़ों में शामिल हो गये। फिर उन्हीं के साथ लखनऊ चले आये।

लखनऊ की तो फ़िज़ा में ही शाएरी थी, और मिज़ाज ख़ानदानी सूफ़ियाना। मूसहफ़ी जैसे उस्ताद का साथ मिल गया तो शायरी ऐसी परवान चढ़ी कि सर चढ़ कर बोलने लगी। नवाब मुहम्मद तक़ी की मौत के बाद किसी और से जुड़ने से इंकार कर दिया। पूरी तरह दरवेशी इख़्तियार कर ली। लिबास गेरुए रंग का चोग़ा। हाथ में मोटा डांडा। मगर कमर से तलवार न छूटी। बाद में भांग भी पीनी शुरू कर दी और पूरी तरह अपनी ही दुनिया में रंग गये।
 
शाह-ए लखनऊ से अस्सी रुपये महीने के मिलते थे। उसी में गुज़र होती थी। नावाज़गंज के क़रीब माधोलाल की चढ़ाई के पास एक छोटा सा बाग़ीचा जिसमें एक कच्चा मकान भी था, ख़रीद लिया था। शादी भी की और एक बेटा भी हुआ। आख़िर उम्र में आँखों की बीनाई जाती रही थी। 1847 में इन्तेक़ाल के वक़्त काफ़ी बीमार और कमज़ोर हो गये थे। उनके घर में ही उनको दफन किया गया।
Khwaja Haidar Ali Atish
आये भी लोग बैठे भी उठ भी खड़े हुये
मैं जा ही ढूंढता तेरी महफ़िल में रह गया

Tuesday, May 15, 2012

लखनऊ में खाईये तो बालाई...

लखनऊ वालों को बालाई का शौक़ शुरू से ही रहा है. बालाई की तहों को इतनी खूबसूरती से जमाना शायद ही किसी और शहर के लोगों को आता हो. दरअसल इसको पुराने ज़माने से मलाई ही कहा जाता रहा है. नवाब आसिफुद्दौला बहादुर को यह इस क़दर पसंद थी कि वह इसको ख़ास तरीकों से तैयार करवाया करते थे. उन्हों ने इसका नाम मलाई से बालाई कर दिया क्योंकि यह दूध के ऊपर तैरती है = बाला + मलाई. फिर तो यह लफ्ज़ इस क़दर ज़बान चढ़ा कि हर शहर में फैल गया और बालाई बोलना शरीफ़ाना ज़बान का हिस्सा बन गया. तो अगली बार अगर आप लखनऊ में हैं, और अपने आप को शरीफ़ समझते हैं, और बालाई की जगह मलाई पर हाथ साफ़ कर रहे हैं..... तो या तो मलाई को दुरुस्त कर लीजिएगा, या शरीफ़ को.

Thursday, April 19, 2012

जिसको दे न मौला.......

कहते हैं पुराने लखनऊ में कुछ दूकानदार अब भी आसफ़-उद-दौला का नाम लेकर दूकानें खोलते हैं. आसफ़-उद-दौला 23 सितम्बर, 1748 को पैदा हुए, 26 जनवरी, 1775 को उन्हें अवध के नवाब वज़ीर के ओहदे से नवाज़ा गया, और 28 जनवरी 1775 को अपने पिता शुजा-उद-दौला की मृत्यु के बाद 26 साल की उम्र में नवाब बने. आज जिस लखनऊ पर आप फख़्र करते हैं, यह लखनऊ लखनऊ होता ही नहीं अगर आसफ़-उद-दौला 1775 में अवध की राजधानी को फैजाबाद से लखनऊ न ले आते. 21 सितम्बर 1797 को उन्होंने हमेशा के लिये ख़ामोशी इख़्तियार कर ली और इमामबाड़ा आसफ़ी में आरामफ़र्मा हैं.

1783 के एक दशक तक चले अकाल के वक़्त जिसमें सब कुछ बर्बाद हो चुका था, आसफ़-उद-दौला ने आसफ़ी (बड़ा) इमामबाड़ा बनवाना (1784) शुरू ही इस लिये किया था कि लोगों को हक़ का रोज़गार मिल जाये और वह सिर्फ उनके रहम पर न रहें. कहा जाता है दिन भर दीवारें खड़ी होती थीं और रात में गिरा दी जाती थीं. और इमारत सालों साल तक तक पूरी न हुई जब तक अकाल चलता रहा.

सदियों से यह सदा लखनऊ की गलियों में गूंजती आ रही है, और ताक़यामत गूंजती रहेगी –

जिसको दे न मौला, उसके दे आसफ़-उद-दौला.’

Nawab Asaf ud Daula


Monday, March 12, 2012

शीरमाल-ए अवध

मुसलमान जब भारत आये तो अपने साथ ख़मीरी और तंदूरी रोटियाँ लाये। ये सादी रोटियाँ थीं, इन पर घी तक न लगता था। भारत आकर उन्होंने जिन अजीब चीज़ों को पहली बार देखा, उनमें पूरियाँ भी थीं। पहले तो उन्होंने अपनी रोटियों पर घी चपोड़ा, फिर उनमें परतें और तहें जमानी शुरू करदीं। इस तरह पराठे बने। शाही दस्तरख़ान तक पहुँचते पहुँचते ये पराठे बाकरख़ानी बन गये।

हमारे नवाब, बादशाह-ए अवध नसीरुद्दीन हैदर के ज़माने में मुहम्दू नाम के एक शख़्स, जो यहाँ का तो नहीं था कहीं बाहर से आया था, ने फिरंगी महल में एक खाने का होटल खोला। जल्द ही उसकी नहारी की शोहरत दूर दूर तक फैल गई। यहाँ तक कि लखनऊ के बड़े बड़े रईस और शहज़ादे भी उसके ज़ाएक़े की क़दर करने लगे। मुहम्दू ने नहारी के साथ खाने के लिए रोटियों के साथ भी तजुर्बे किये। उन तजुर्बों का बेहतरीन नतीजा शीरमाल की शक्ल में सामने आया।

Sheermal - e Awadh


आज कोई 180 साल बाद भी शीरमाल अवध से बाहर कहीं नहीं बनती। अगर बनती भी है हम से बेहतर नहीं। अब वक़्त है, कि अब तक नहीं, तो अब हमें शीरमाल को अवध की क़ौमी रोटी डिक्लेयर कर देनी चाहिये।

Monday, January 16, 2012

कत्थक नृत्य : लखनऊ

यूं तो कत्थक नृत्य की शुरुआत जा कर बाबा भोलेनाथ से जुड़ जाती है। लेकिन लखनऊ में इसका नाम हमारे बादशाह वाजिदअली शाह से पहले सुनाई नहीं पड़ता। उनके पहले इस नृत्य की दास्ताँ ब्रजभूमि की रासलीला में खो जाती है। यह ज़रूर है कि वाजिदअली शाह की कोशिशों ने इसे रास लीला से अलग करके एक अद्भुत रूप प्रदान किया जो आज हमारे सामने है। 

लेकिन उनकी कोशिशों में उनके कत्थक नृत्य के उस्ताद ठाकुर प्रसाद का भी बहुत बड़ा योगदान है। ठाकुर प्रसाद का नाम तो यदाकदा इतिहास के पन्नों में दिख भी जाता है। मगर उनके बड़े भाई दुर्गा प्रसाद, जो शायद इस काम में बराबर के हिस्सेदार थे, का नाम तो अब बिलकुल ही भुलाया जा चुका है। ये दोनों ही भाई मुहम्मद अली शाह के जमाने से ही लखनऊ के प्रसिद्ध नृतक रहे थे। 

उनके पिता प्रकाश जी का नाम भी नृत्य के बड़े महिरीन में लिया जाता था। उनके समकालीन नृतकों में हेलाल जी और दयालु जी का नाम आता है, जिन्हों ने नवाब सादतअली ख़ान के ज़माने से लेकर नसीरुद्दीन हैदर तक अपने नृत्य से लखनऊ का नाम रौशन रखा। 

आसफुद्दौला के ज़माने में खुशी महाराज नाम के बड़े उस्ताद मौजूद थे। मैं यह मालूम नहीं कर सका कि जब अवध की गद्दी लखनऊ आई तो खुशी महाराज आसफुद्दौला के साथ आने वालों में से थे, या पहले से यहाँ मौजूद थे, क्योंकि उनका नाम शुजाउद्दौला के समकालीन भी आता है।
Kathak Dancer Wajid Ali Shah